इंडी गठबंधन में शामिल दल भले दावा कर लें कि यहां सब कुछ ठीक है, लेकिन यह बात किसी से अब छुपी नहीं है कि गठबंधन का कोई दल अपने स्वार्थ को छोड़ना नहीं चाहता। जब सभी दलों ने मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला कर ही लिया है, जब सभी ने मिलकर चुनाव लड़ने के लिए गठबंधन बना लिया है तो सबसे पहले अपने स्वार्थ का परित्याग तो करें! जब तक वे अपने स्वार्थ को नहीं छोड़ेंगे तक तक देश को कैसे यकीन दिला पायेंगे कि सभी दल वाकई देश की सेवा करने के लिए एकजुट हुए हैं। इंडी गठबंधन के दलों की दलील चाहे कुछ भी हो, लेकिन जब साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला पहले से कर रखा तो तो सीटों के बारे में भी रणनीति पहले से बना लेनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा कोई पार्टी नहीं कर पायी, नतीजा सीटों को लेकर सभी पार्टियों में रार मची है।
तीन राज्यों में चुनाव हारने के बाद भी फ्रंटफुट पर खेलना चाहती है कांग्रेस!
इस बात में कोई शंका नहीं है कि कांग्रेस ने गठबंधन दलों के साथ बहुत से मुद्दों पर सहमति बनाये जाने को लटकाकर रखा। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के जीत के खुमार में डूबी कांग्रेस को यही भरोसा था कि आगे के विधानसभा चुनावों में भी वह भौकाल मचा देगी। लेकिन तीन बड़े राज्यों में औंधे मुंह गिरने के बाद उसकी सारी योजना भी धराशायी हो गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि उसके गठबंधन के साथ दलों को अपना सीना चौड़ा करने का मौका मिल गया। कई राज्यों में तो स्थिति यह है कि स्थानीय पार्टियां कांग्रेस के लिए सीटें छोड़ने को तैयार नहीं हैं। सहयोगी पार्टियों की इस रणनीति से कांग्रेस का सिर घूम रहा है कि अब करे तो क्या करे।
कांग्रेस का किस राज्य में क्या है हाल?
महाराष्ट्र
शुरुआत करते हैं महाराष्ट्र से। महाराष्ट्र में इंडी गठबंधन में शामिल शिवसेना यूबीटी कांग्रेस के लिए ज्यादा सीटें नहीं छोड़ना चाहती है। संजय राउत ने तो यहां तक कहा था कि लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी 48 सीटों में से 23 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। जबकि इंडी गठबंधन में और भी दल हैं, तो सोचिए दूसरी पार्टियों और कांग्रेस को क्या मिलेगा। कांग्रेस के पांव तले तो जमीन खिसक गयी है। यहां यह भी बता दें कि कुछ दिन पहले संजय राउत ने यह भी कहा था कि सीटों के बंटवारे के संबंध में कांग्रेस को शून्य से शुरू करना होगा। इसके पीछे तर्क यह दिया था कि महाराष्ट्र में कांग्रेस के पास कोई सीट नहीं है।
पश्चिम बंगाल
पश्चिम बंगाल में तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने साफ कर दिया है कि तृणमूल कांग्रेस 2024 का लोकसभा चुनाव राज्य में अकेले लड़ेगी। यानी कांग्रेस समेत दूसरे गठबंधन के दलों के लिए यहां एक भी सीट नहीं है। इसका मतलब साफ है कि टीएमसी का पश्चिम बंगाल में इंडी गठबंधन के घटक दलों कांग्रेस या वाम मोर्चा के साथ सीट-बंटवारा नहीं होगा। खबर यह भी है कि ममता बनर्जी ने कांग्रेस को दो सीटें देने की पेशकश की है, यानी ऊंट के मुंह में जीरा। ममता कांग्रेस को दो सीटें इसलिए दे सकती हैं, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 2 ही सीटें मिली थीं। जबकि टीएमसी 22 सीटें जीतने में सफल रही थी। चूंकि भाजपा ने उस चुनाव में 18 सीटें जीत कर सभी को चौंकाया था, इसलिए ममता बनर्जी का यह मानना है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा को तृणमूल कांग्रेस ही रोक सकती है।
पंजाब-दिल्ली
पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है। आम आदमी पार्टी भले ही गठबंधन के साथ है, लेकिन वह इन दो राज्यों में किसी भी पार्टी के लिए एक भी सीट छोड़ना नहीं चाहती है। क्योंकि उसे यकीन है कि यह वह अकेले भी लड़कर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत सकती है। फिर वह अपने सहयोगी दलों के लिए अपनी सीटों की बलि क्यों दे।
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश की कुल 80 सीटों में से सपा कांग्रेस के लिए 10 सीट छोड़ना चाहती है। उनमें से 5-6 सीटें राष्ट्रीय लोकदल, 1 सीट भीम आर्मी को छोड़ने की बात कही है। सपा लगभग 58 सीटों पर खुद चुनाव लड़ना चाहती है। केंद्र की राजनीति में उत्तर प्रदेश पर पकड़ होना काफी अहम है। ऐसे में कोई भी पार्टी कम सीट पर राजी नहीं है। यानी कांग्रेस को यहां भी त्याग करना होगा। त्याग क्यों न करे, 2019 में कांग्रेस ने कोई बड़ा तीर नहीं मार लिया था। 2019 में कांग्रेस केवल एक सीट ही जीती थी।
बिहार
बिहार की बात किये बिना राजनीतिक की बात अधूरी है। यहां भी कांग्रेस को कोई ज्यादा सीटें मिलने वाली नहीं हैं। गठबंधन के लिहाज से बिहार की राजनीति की धुरी में दो ही पार्टियां हैं- जदयू और राजद। कांग्रेस ने भले ही यहां ज्यादा सीटों पर अपनी नजरें गड़ाये हुए है, लेकिन बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर आखिर कांग्रेस को कितनी सीटें मिल पायेंगी? जदयू और राजग ने 16-16 सीटों की दावेदारी कर रखी है। लेफ्ट भी सीटें मांग रही हैं। यानी बची हुई 8 सीटों में से कांग्रेस के लिए कितनी सीटें बच पायेंगी?
झारखंड
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का इन दिनों झारखंड में जो कद बढ़ा है, इससे ‘कांग्रेस बड़े भाई की भूमिका निभायेगी’ वाला दावा चलने वाला नहीं है। झारखंड में कुल 14 सीटें हैं। हेमंत सोरेन पहले ही कह चुके हैं कि झारखंड में ‘झामुमो ही बड़े भाई की भूमिका’ में रहेगा। पूरी उम्मीद है कि झामुमो कम से कम 9 सीटों पर चुनाव लड़ेगा। सीट तो राजद को भी चाहिए। तो भी कांग्रेस के लिए सीटें बचीं कितनी?
आखिर कांग्रेस को क्यों चाहिए ज्यादा सीटें?
कांग्रेस भले ही गठबंधन में शामिल एक पार्टी है, लेकिन वह देश का नेतृत्व के साथ गठबंधन दलों के नेतृत्व करने की मानसिकता से ग्रसित है। याद होगा कर्नाटक विधानसभा चुनाव जीतने से पहले तक कांग्रेस गठबंधन की पहली बैठक में शामिल होने से कतराती रही है। लेकिन जैसे ही कर्नाटक का उसने चुनाव जीता, उसे एक रोशनी की किरण दिखायी देने लगी कि अगर वह गठबंधन में शामिल जाये तो फायदे ही फायदे। कांग्रेस गठबंधन में शामिल तो हुई लेकिन उसे ‘हाईजैक’ करने की नीयत से। गठबंधन में शामिल होने के बाद चालें भी उसने अपने हिसाब से ही चलीं। गठबंधन की शुरुआती बैठकों के बाद उसने एक बार फिर से चुप्पी साध ली। गठबंधन की पार्टियों को दरकिनार कर विधानसभा के चुनाव की तैयारियां करती रही और चुनाव परिणाम के बाद के गणित में मस्त रही। बाद के इन विधानसभा चुनावों में कम से कम राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सीट बचा ले जाती तो फिर वही होता जैसा कांग्रेस ने सोचा था। लेकिन बाजी पलट गयी। कांग्रेस के प्रभुत्व वाले तीन बड़े राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसे मुंह की खानी पड़ी। इसकी नतीजा यह हुई कि अब गठबंधन में शामिल दल ही कांग्रेस को भाव नहीं दे रहे।
सीटों पर सहमति की जरूरत क्यों?
यहां आम आदमी के मस्तिष्क में यह सवाल जरूर कौंध रहा होगा कि सीटों पर सहमति की जरूरत आखिर क्यों है? जबकि चुनाव तो मिलकर लड़ रहे हैं सभी। जो भी पार्टी अपने-अपने राज्य में मजबूत हैं, उन्हें वहीं चुनाव लड़ने दिया जाये। गठबंधन के सभी दल उसे जिताने में मदद करें ताकि पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत सके। गठबंधन इसीलिए बना है कि मिलकर चुनाव लड़ा जाये। गठबंधन की पार्टियों की जीती हुई सीटों को मिलाकर भी तो मकसद हासिल किया जा सकता है?
न्यूज डेस्क/ समाचार प्लस – झारखंड-बिहार
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