Vasant Navratri: कलश स्थापना के साथ करें मां शैलपुत्री की आराधना, प्रसन्न होकर माता सिद्धियां करेंगी प्रदान

Vasant Navratri: Worship Mother Shailputri, she will be happy and bestow accomplishments.

प्रथम शैलपुत्री

वन्दे वंछितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।

वृषारूढाम् शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ||

वासंतिक नवरात्रि का प्रारम्भ चैत्र प्रतिपदा पर कलश स्थापना से हो रहा है। चाहे वसंत नवरात्रि हो या शारदीय नवरात्रि, दोनों में  नौ दिन मां दुर्गा के नौ रूपी की आराधना करने का विधान है। शैलपुत्री देवी दुर्गा के नौ रूप में पहला स्वरूप हैं। यह ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम ‘शैलपुत्री’ पड़ा। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना प्रारंभ होती है।

वृषभ-स्थिता इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं तब इनका नाम ‘सती’ था। इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था।

शैलपुत्री का संस्कृत में अर्थ होता है ‘पर्वत की बेटी’। पौराणिक कथा के अनुसार मां शैलपुत्री अपने पिछले जन्म में भगवान शिव की अर्धांगिनी (सती) और दक्ष की पुत्री थीं। एक बार जब दक्ष ने महायज्ञ का आयोजन कराया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया, परंतु भगवान शंकर को नहीं। उधर सती यज्ञ में जाने के लिए व्याकुल हो रही थीं। शिवजी ने उनसे कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है लेकिन उन्हें नहीं; ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है। सती का प्रबल आग्रह देखकर भगवान भोलेनाथ ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी।

सती जब घर पहुंचीं तो वहां उन्होंने भगवान शिव के प्रति तिरस्कार का भाव देखा। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक शब्द कहे। इससे सती के मन में बहुत पीड़ा हुई। वे अपने पति का अपमान सह न सकीं और योगाग्नि द्वारा स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। इस दारुण दु:ख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने उस यज्ञ को विध्वंस कर दिया। फिर यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं।

न्यूज डेस्क/ समाचार प्लस – झारखंड-बिहार

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