Subhash Chandra Bose Jayanti 2023: हमारे यहां महापुरुष कम नहीं हुए हैं। आज के भारत को भारत बनाने में ऐसे हजारों महापुरुषों का योगदान रहा है। लेकिन विडंबना यह है कि महापुरुषों को भी सिर्फ उनकी जयंती या पुण्यतिथि पर ही याद किया जाता है । ऐसे मौकों पर भी दो चार रटी रटाई बातें बोल कर और उन महापुरुषों के चित्र या प्रतिमा पर फूल या माला चढ़ाने की रस्म अदायगी निभा दी जाती है। हम भाषणों में इन महापुरुषों का जिक्र करते नहीं थकते, लेकिन उनकी सीख को व्यवहार में लाने की कोशिश नहीं करते। भारत की आजादी में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने ‘आजाद हिंद फौज’ की स्थापना की थी। भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों में सुभाष चंद्र बोस का नाम भी शामिल है। नेता जी का नारा ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ आज भी देश के लोगों के अन्दर देशभक्ति की भावना को बढ़ता है।

कई राजीतिक दल के नेता भी नेताजी नाम से पुकारे जाने लगे
लेकिन विडंबना या इसे दुर्भाग्य कहें कि नेताजी कहलाने वाले सुभाष चन्द्र बोस( Netaji Subhash Chandra Bose) सिर्फ जयंती में ही याद आते हैं।आज इनके आदर्शों पर चलने की जरूरत है।नयी पीढ़ी को उनके जीवन और आदर्श से जुड़ने के लिए उनके सन्देश को पहुंचाने की जरूरत है। भारत को आजाद कराने में नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhash Chandra Bose) ने एक अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन करके अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। इसी दौरान नेताजी ने यह नारा दिया था कि तुम मुझे खून दो मैं तु्म्हें आजादी दूंगा। इसको सुनकर आज भी हर भारतीय के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सुभाष चंद्र बोस उस समय जवाहर लाल नेहरू से भी ज्यादा लोकप्रिय नेता थे। इन्हें रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने नेताजी की उपाधि दी थी। हालाँकि आजादी के बाद कई राजीतिक दल के नेता भी इस नाम से पुकारे जाने लगे,लेकिन सुभाष चन्द्र बोस जैसी शख्सियत नहीं बन सके। आज नेताजी की 127वीं जयंती मनाई जा रही है ऐसे में आइये जानते हैं नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कई लम्हों को जिन्हें झारखंड अपने इतिहास में समेटे हुए है।

देश में आखिरी बार झारखंड के इसी स्टेशन पर देखे गए थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस
झारखंड का गोमो रेलवे स्टेशन महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की ऐतिहासिक यात्रा से जुड़ा हुआ है। रहस्मय तरीके से गुम होने से पहले नेताजी धनबाद के गोमो में 17-18 जनवरी की रात 1941 में देखे गए थे। वे ट्रेन पर सवार होकर पेशावर ( अब पाकिस्तान) के लिए रवाना हुए। इसके बाद क्या हुआ ? कोई नहीं जानता। कहा जाता है कि नेताजी गोमो से पेशावर और फिर रंगून गए थे। नेताजी की याद में हर साल गोमो में 18 जनवरी को महानिष्क्रमण दिवस मनाया जाता है।
स्टेशन का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो जंक्शन
नेताजी के सम्मान में रेल मंत्रालय ने साल 2009 में इस स्टेशन का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो जंक्शन कर दिया। 23 जनवरी, 2009 को तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उनके स्मारक का यहां लोकार्पण किया था। आज जहां पूरे देश में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 127वीं जयंती मनाई जा रही है, वहीं दूसरी ओर गोमो में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की निष्क्रमण यात्रा मनाई जाती है।

किस ट्रेन में सवार हुए नेताजी
17-18 जनवरी की रात 1941 को कार से नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने भतीजे डा. शिशिर बोस के साथ धनबाद के गोमो स्टेशन पहुंचे थे। अंग्रेजी फौजों और जासूसों से नजर बचाकर गोमो हटियाटाड़ के घने जंगल में नेताजी छिपे रहे। यहां जंगल में ही स्वतंत्रता सेनानी अलीजान और वकील चिरंजीव बाबू के साथ एक गुप्त बैठक की थी। बैठक के बाद वकील चिरंजीवी बाबू और अलीजान ने गोमो के ही लोको बाजार स्थित काबली वालों की बस्ती में नेताजी को ले गए। यहां उनको एक घर में छिपा दिया था। नेताजी गोमो के ही लोको बाजार स्थित कबीलेवालों की बस्ती में ही रहे।
यूनियन कोल माइनर्स टाटा कोलियरी मजदूर संगठन की स्थापना की थी
इसके बाद से अब प्रत्येक वर्ष प्रत्येक वर्ष 17-18 जनवरी को मध्यरात्रि निष्क्रमण दिवस स्टेशन परिसर में मनाया जाता है। धनबाद से नेताजी का गहरा नाता रहा है।नेताजी का वर्ष 1930 से 1941 के बीच कई बार धनबाद आगमन हुआ था। उन्होंने धनबाद में 1930 में देश की पहली रजिस्टर्ड मजदूर यूनियन कोल माइनर्स टाटा कोलियरी मजदूर संगठन की स्थापना की थी। नेताजी स्वयं इसके अध्यक्ष थे। यहीं से देश को आजाद कराने को आजाद हिंद फौज का सपना पूरा करने की दिशा में सुभाष चंद्र बोस ने मजदूरों को एकजुट कर कदम बढ़ाए थे।
5 दिसंबर 1939 को पूर्वी सिंहभूम के पोटका प्रखंड के कालिकापुर आए थे
पूर्वी सिंहभूम के पोटका प्रखंड के कालिकापुर में 5 दिसंबर 1939 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस आए थे. बताया जाता है कि गांववालों ने जब इलाके के चरित्रहीन दारोगा के खिलाफ आवाज उठाई तो कई गांववालों पर फर्जी मुकदमा लाद दिया गया. इसके बाद गांव में नेताजी के कदम पड़े. गांववालों ने आज भी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी स्मृतियों को सहेज कर रखा है.

रामगढ़ में गार्ड ऑफ़ ऑनर मिला था
1940 में नेताजी खूंटी होते हुए रांची पहुंचे थे और फिर रामगढ़ गए
इसके बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस झारखंड तब आए जब ऐतिहासिक रामगढ़ अधिवेशन हो रहा था. 1940 में नेताजी खूंटी होते हुए रांची पहुंचे थे और फिर रामगढ़ गए थे. लालपुर में वे स्वाधीनता सेनानी फणींद्रनाथ के घर रूके थे.

रामगढ़ में बैल गाड़ी से सुभाष चन्द्र बोस अधिवेशन स्थल ले जाए गए थे
गिरिडीह जिला के सरिया स्थित प्रभाती कोठी से भी जुड़ी हैं यादें
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की यादें गिरिडीह जिला के सरिया मे स्थित प्रभाती कोठी से भी जुड़ी हुई है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने वर्ष 1915-20 के बीच में इस कोठी की नींव रखी थी। इस कोठी की नेताजी ने न केवल नींव रखी थी, बल्कि इसी में रहकर वे अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की रणनीति भी बनाते थे। इसके लिए वे यहां मजदूर के वेश में आए थे। उन्होंने ही चांदी के बेलचा से सबसे पहले नींव में मिट्टी डाली थी। जानकार बताते हैं कि अंग्रेजों को नेताजी के यहां आने की सूचना मिल गई थी। उन्हें ढूंढ़ते हुए अंग्रेज सिपाही वहां पहुंच गए, लेकिन उसके पहले ही नेताजी वहां से जा चुके थे।
जमशेदपुर लेबर यूनियन के अध्यक्ष भी रहे
नेताजी सुभाष चंद्र बोस 1928 से 1936 तक जमशेदपुर लेबर यूनियन के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने कालिकापुर उच्च प्राथमिक विद्यालय वर्तमान में उत्क्रमित उच्च विद्यालय कलिकापुर में एक आम सभा भी की थी, जिसमें आसपास के गांव से हजारों संख्या में लोग शामिल हुए थे।
1940 में नेताजी खूंटी होते हुए रांची पहुंचे थे
जानकारी के अनुसार 1940 में 18 से 20 मार्च तक रामगढ़ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का महत्वपूर्ण अधिवेशन हुआ था। इस ऐतिहासिक तीन दिवसीय अधिवेशन में ही ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन की नींव पड़ी। रामगढ़ की धरती से ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अलग राह भी पकड़ ली और उन्होंने समानांतर अधिवेशन किया। नेताजी खूंटी होते हुए रांची पहुंचे थे और फिर रामगढ़ गए थे। लालपुर में वे स्वाधीनता सेनानी फणींद्रनाथ के घर रूके थे। फणींद्रनाथ के परिवार ने भी नेताजी से जुड़ी निशानियों को सहेज कर रखा है।
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