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New Sansad Dispute: जवाहरलाल नेहरू करते रहे हैं राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का ‘अपमान’, मरने के बाद भी कम नहीं हुई नफरत!

New Sansad Dispute: Jawaharlal Nehru kept on 'insulting' Rajendra Prasad

न्यूज डेस्क/ समाचार प्लस – झारखंड-बिहार

नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह के विरोध का इस समय चारों ओर शोर है। विरोध करने वाले अपने-अपने तरीके से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों नयी संसद के उद्घाटन को ‘नाजायज’ ठहरा रहे हैं। विरोध करने वाले विपक्षी दलों के विरोध में एक राय कॉमन है कि राष्ट्रपति के हाथों नयी संसद का उद्घाटन क्यों नहीं कराया जा रहा है, जबकि वह सर्वोच्च संवैधानिक पद पर हैं। इसे राष्ट्रपति का अपमान मान रहे हैं।

अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब आज की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति पद के लिए अपने पक्ष में वोट के लिए हर पार्टी नेता के यहां जा रही थीं। तब और उसके बाद भी इन्हीं विपक्षी दलों, खासकर कांग्रेस ने आदिवासी उम्मीदवार का मजाक उड़ाया और न जाने क्या-क्या कह डाला। आज वही कांग्रेस उनकी सबसे बड़ी हमदर्द बनी हुई है। इन बातों को फिलहाल किनारे किया जाये। अगर राष्ट्रपति का सम्मान सर्वोच्च प्राथमिकता है तो फिर इसी कांग्रेस को इतिहास के पन्नों में भी थोड़ा झांक लेना चाहिए कि किस तरह देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने किस-किस तरह और एक नहीं कई बार प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को ‘अपमानित’ किया। जिंदा रहते हुए ही नहीं, जिंदा नहीं रहने के बाद भी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर अगर यह आरोप लग रहा है कि वह तानाशाही कर रहे हैं तो ऐसी ‘तानाशाही’ आजादी के बाद भी कई मौकों पर देखी गयी है। प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद इसका जीता-जागता उदाहरण है। वैसे कांग्रेस के जमाने में संविधान को ठेंगे पर कई बार रखा गया है। एक नहीं कई बार। आप भी देख लीजिए।

हिंदू कोड पर राजेंद्र प्रसाद – जवाहरलाल नेहरू आमने-सामने

पता नहीं क्यों, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित क्यों महसूस करते थे? इसलिए उन्हें नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से जाने देते थे। हिन्दू कोड बिल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। पंडित नेहरू हिन्दुओं के लिए अलग हिंदू कोड बिल लाना चाह रहे थे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इसका खुलकर विरोध किया था। राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि अगर ऐसा ही तो हिंदू बिल ही क्यों, देश की सभी जातियों के लिए बिल बनाना चाहिए, लेकिन नेहरू हिंदू बिल ही लाने पर आमादा थे।

राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनने की राह में नेहरू ने अटकाये रोड़े

यह बहुत बड़ा सत्य है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू डा. राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनते भी देखना नहीं चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ‘‘झूठ’’ तक का सहारा लिया। नेहरू ने 10 सितंबर, 1949 को डा. राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखा था कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फैसला किया है कि सी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होगा। पत्र पढ़कर राजेंद्र प्रसाद को काफी तकलीफ हुई। लेकिन नेहरू का यह ‘झूठ’ पकड़ा गया था। दरअसल, राजेंद्र प्रसाद ने पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई। पटेल उस पत्र को पढ़कर सन्न हो गये, क्योंकि, उनकी इस बारे में नेहरू से कोई चर्चा नहीं हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डा. राजेंद्र प्रसाद में से किसे राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। इसके बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘पार्टी में उनकी (डा. राजेन्द प्रसाद की) जो स्थिति रही है, उसे देखते हुए वह बेहतर व्यवहार के पात्र हैं। नेहरू को जब यह पत्र मिला तब उन्हें लग गया कि उनका झूठ पकड़ा गया है। अपनी फजीहत कराने के बदले उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करने का निर्णय लिया। सरदार पटेल और कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं राजेंद्र प्रसाद के हक में तो थे ही आखिर नेहरू को कांग्रेस नेताओं सर्वानुमति की बात माननी ही पड़ी।

पंडितों के पैर छूने पर भी जवाहरलाल नेहरू को आपत्ति

एक बार राजेंद्र प्रसाद बनारस दौरे पर थे तब उन्होंने खुले आम काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारियों के पैर छू लिए। इस पर नेहरू नाराज हो गए और इस पर सार्वजनिक रूप से उन्होंने विरोध जताया। पं. नेहरू  का कहना था कि भारत के राष्ट्रपति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। हालांकि राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरू की आपत्ति पर प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझा।

नेहरू की हिन्दी-चीनी भाई-भाई नीति के विरोधी थे राजेंद्र प्रसाद

राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से कभी सहमत नहीं थे। उसका क्या हश्र हुआ देश जानता है। लेकिन नेहरू इसी चीनी नीति पर आगे बढ़ते रहे। नेहरू की इसी चीनी नीति के कारण भारत को 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। जिसके कारण भारत का बड़ा हिस्सा चीन के पास चला गया।

राजेन्द्र प्रसाद के राजभाषा हिन्दी सुझाव के भी विरोधी रहे नेहरू

राजेन्द्र बाबू और नेहरु में राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी मतभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी। सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु अंग्रेजी परस्त नेहरू की केंद्र सरकार ने इसे नहीं माना।

संविधान निर्माण का राजेंद्र बाबू से ज्यादा श्रेय आम्बेडकर को

बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर को संविधान निर्माता का दर्जा हमेशा मिलता रहा है। जैसा कि सभी जानते हैं कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ही संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उन्होंने जिन 24 उप-समितियों का गठन किया था, उन्हीं में से एक ‘‘मसौदा कमेटी’’ के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे। उनका काम 300 सदस्यीय संविधान सभा की चर्चाओं और उप-समितियों की अनुशंसाओं को संकलित कर एक मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करना था जिसे संविधान सभा के अध्यक्ष के नाते डॉ. राजेन्द्र प्रसाद स्वीकृत करते थे। फिर वह ड्राफ्ट संविधान में शामिल होता था, लेकिन उनके इस महान कार्य का श्रेय उन्हें कभी नहीं दिया गया।

संविधान में देश को कृषि प्रधान देश बनाने के पक्षधर थे राजेंद्र प्रसाद, नहीं माने गये उनके सुझाव

क्या आपको पता है कि जब संविधान का निर्माण हो रहा था तब देश को कृषि प्रधान देश बनाये जाने की चर्चा खूब हुई थी। इसका विरोध और समर्थन दोनों हुआ। जवाहर लाल नेहरू की आंखों पर चूंकि ब्रिटिश पार्टियामेंट्री सिस्टम का चश्मा चढ़ा हुआ था, इसलिए वह देश को कृषि प्रधान देश बनाने के पक्षधर नहीं थे। संविधान निर्माण का कार्य लगभग पूर्ण हो चुका था। इस बीच राजेन्द्र प्रसाद ने यह मानते हुए कि संविधान में भले ही देश को कृषि प्रधान का दर्जा न मिल पाया हो, लेकिन कुछ शर्तें जोड़ दी जायें तो  जिसका फायदा देश के किसानों को मिल पायेगा। उन्होंने पांच सुझाव पं. नेहरू को दिये। और विडम्बना देखिये, उनके सुझाव नहीं माने गये।

नेहरू नहीं चाहते थे राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन में जायें

पहली बात यह कि जवाहर लाल नेहरू सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण के पक्ष में ही नहीं थे। महात्मा गांधी जी की सहमति से सरदार पटेल के कारण सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण काम शुरू किया था। मंदिर का निर्माण जब पूर्ण हो गया तब नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद से सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन न करने का आग्रह किया था। उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उद्घाटन से बचना चाहिए। नेहरू के आग्रह को न मानते हुए राजेंद्र बाबू भी तन गए। वह सोमनाथ गए और जबरदस्त भाषण दिया था। डा. राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की। डा. राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अपने संस्कारों से दूर होना या धर्मविरोधी होना नहीं हो सकता।’’

पूर्व राष्ट्रपति को एक भी देना नेहरू को गवारा नहीं हुआ, सीलन भरे घर में तोड़ा दम

राजेन्द्र प्रसाद से दुराग्रह का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि जब 12 वर्षों तक रा्ष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त हुए तो नेहरू ने उन्हें दिल्ली में घर तक नहीं दिया। राजेंद्र बाबू दिल्ली में रह कर किताबें लिखना चाहते थे. लेकिन, नेहरू ने उनके साथ अन्याय किया जबकि एक पूर्व राष्ट्रपति को उनका सम्मान मिलना चाहिए था। आखिरकार, डा. राजेंद्र प्रसाद पटना लौट आये। उनके पास अपना मकान नहीं था। पैसे नहीं थे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद आखिरकार पटना के सदाकत आश्रम के एक सीलन भरे कमरे में रहने लगे। उन्हें दमा की बीमारी ने जकड़ लिया। एक आत्मसम्मानी पूर्व राष्ट्रपति मदद के लिए गिड़गिड़ा भी तो नहीं सकता था। पटना में उन्हें अच्छी स्वास्थ्य सुविधा भी नहीं मिली। उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के लिए पटना मेडिकल कॉलेज में एक मशीन थी, लेकिन उसे भी दिल्ली भेज दिया गया। मानो यह सब ‘किसी’ के निर्देश पर हो रहा हो। यानी राजेन्द्र बाबू को मारने का पुख्ता इंतजाम किया गया? एक बार जय प्रकाश नारायण उनसे मिलने पहुंचे तो उनकी दशा देखकर सन्न रह गये। जेपी ने फौरन अपने सहयोगियों से कहकर आश्रम को रहने लायक बनवाया, लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू का 28 फरवरी,1963 को निधन हो गया।

मौत के बाद भी राजेंद्र प्रसाद के प्रति नेहरू की नफरत नहीं गयी

राजेन्द्र बाबू की मौत के बाद भी नेहरू की नफरत उनके प्रति कम नहीं हुई। अंत्येष्टि में नेहरू तो खुद शामिल नहीं हुए, डा. संपूर्णानंद को भी रोका । राजस्थान के राज्यपाल डां. संपूर्णानंद पटना जाना चाह रहे थे, लेकिन नेहरू ने उन्हें वहां जाने से मना कर दिया। जब नेहरू को मालूम चला कि संपूर्णानंद पटना जाना चाहते हैं तो उन्होंने संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आये और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो। इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया। इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा खुद डॉ. संपूर्णानंद ने किया है।

राधाकृष्णन को भी पटना जाने से नेहरू ने रोका था

नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दी. लेकिन, राधाकृष्णन ने नेहरू की बात नहीं मानी और वह राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। अजीब देश है, महात्मा गांधी के बगल में संजय गांधी जैसे को जगह मिल सकती है, लेकिन देश के पहले राष्ट्रपति के लिए इस देश में कोई इज्जत ही नहीं है। ऐसा लगता है कि इस देश में महानता और बलिदान की कॉपी राइट सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार के पास है।

1975 की इमर्जेंसी तो याद है, नेहरू के बाद इंदिरा ने संविधान को किया हाईजैक?

1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने क्या किया था। यह सबको पता है। आजादी के महज 28 साल बाद ही देश को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल की आग में झोंक दिया था। 25-26 जून की रात को आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से दस्तखत करवा कर आपातकाल लागू हो गया थाअगली सुबह समूचे इंदिरा गांधी ने रेडियो पर राष्ट्रपति जी द्वारा आपातकाल की घोषणा करवा दी। प्रेस की भी आजादी छीन लिये जाने के बाद भी इंदिरा गांधी के इस कृत्य पर अखबारों में कार्टून छपे। एक कार्टून में यहां तक दिखाया गया कि राष्ट्रपति बाथरूम में हैं, उनसे आपातकाल के आदेश पर दस्तखत करवाया जा रहा है।

शाहबानो केस – मुसलमानों को खुश करने के लिए राजीव गांधी ने संविधान ही बदल दिया

नेहरू-गांधी परिवार ने जब इतने बड़े कारनामे किये तो भला राजीव गांधी पीछे कैसे रहते। शाहबानो का प्रकरण भला कोई कैसे भूल सकता है। आखिर यह भी तो संविधान की धज्जियां उड़ाने के जैसा ही था। शाहबानो तीन तलाक की शिकार को सुप्रीम कोर्ट ने न्याय देते हुए उसके पति को मुआवजे का आदेश दिया था। लेकिन कट्टरपंथियों को यह आदेश रास नहीं आया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तिलमिला गया। फिर क्या था, मुस्लिम कट्टरपंथियों ने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को इस्लामी मामलों में दखल बता विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया। यह विडंबना ही थी कि लेफ्ट दलों को छोड़कर सेकुलर कहे जाने वाली कमोबेश हर पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के एक सेकुलर फैसले का विरोध किया। सालभर के भीतर ही मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध के आगे राजीव गांधी सरकार ने घुटने टेक दिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून 1986 पारित कर दिया। शाह बानो अदालती लड़ाई जीतने के बाद भी हार गईं। राजनीति ने उन्हें हरा दिया।

उदाहरण खोजने बैठेंगे तो एक नहीं सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे। लेकिन आग से आग को बुझाया नहीं जा सकता, लेकिन आज हो यही रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों नये संसद भवन का उद्घाटन होना कई विपक्षी दलों को पच नहीं रहा है। इसलिए सिर्फ राष्ट्रपति के हाथों नयी संसद के उद्घाटन का बहाना लेकर हाय-तौबा मचा रहे हैं। 1927 में वर्तमान संसद भवन का उद्घाटन वायसराय इरविन के हाथों होने के बाद सदन में कई गैलरियों या नये निर्माण का उद्घाटन कई बार हुआ। किसी भी विपक्षी नेता को याद हो तो बताये कि कब उनका उद्घाटन किसी राष्ट्रपति के हाथों करवाया गया है। इनका उद्घाटन कभी भी किसी राष्ट्रपति के हाथों नहीं, बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्रियों ने ही किये हैं। आज चूंकि नरेन्द्र मोदी का विरोध राजनीति में सबसे बड़ा मुद्दा होता है, इसलिए विपक्ष उन्हें यह अधिकार देकर उन्हें इतिहास के पन्नों का हिस्सा बनते नहीं देखना चाहता है। विपक्ष ने तो विवाद को इतना आगे बढ़ा दिया है कि अब वह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में यह मांग की है नयी संसद का उद्घाटन राष्ट्रपति के हाथों होना चाहिए। थोड़ी देर में इस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जायेगा। अगर यह फैसला विपक्ष की सोच के अनुरूप नहीं हुआ तब वह क्या करेगा? क्या फिर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ भी वह खड़ा हो जायेगा?

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