षष्ठम् कात्यायनी
चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥
माता का छठा स्वरूप कात्यायनी का है। जब-जब संसार में दैत्यों का अत्याचार बढ़ता है। धर्म व धरा तथा ऋषि समुदाय सहित देव गण भी उनके बढ़ते हुए दुराचारों से आक्रान्त होने लगते हैं। तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्ति की उत्पत्ति असुरों के विनाश व जगत के कल्याण हेतु होती है। देवी कात्यायनी ने महिषासुर जैसे महाभयानक दैत्यो को मारकर जगत का कल्याण किया है। अपने श्रद्धालु भक्तों को अभय देने वाली, रोग, पीड़ाओं, भय, ग्लानि को दूर करने वाली परम शक्ति का पावन स्मरण सभी के लिए कल्याणकारी है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार, देवताओं के कार्य सिद्ध करने के लिए देवी महर्षि कात्यायन के आश्रम पर प्रकट हुई और महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या माना, इसलिए कात्यायनी नाम से उनकी प्रसिद्ध सम्पूर्ण विश्व में हुई। महिषासुर का संहार करने वाली देवी श्री हरि विष्णु, आदि देव महादेव तथा ब्रह्मा जी के परम तेज से उत्पन्न हुई हैं। मां ईश्वरी की सर्व प्रथम आराधना महर्षि कात्यायन ने की, और मां कृपा करके उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हुईं। मां की प्रतिमा चतुभुर्जी है जो विविध प्रकार के अस्त्रादि से युक्त है। जिनमें अभय मुद्रा, वरमुद्रा तथा तलवार व कमल प्रमुख हैं। मां श्रद्धालु भक्तों को जीवन में सफलता दिलाने वाली तथा कुशाग्र बुद्धि का बनाती हैं और उन्हें इच्छित फल भी देती हैं। इनके भक्तों को वांछित कार्य करने में महारथ हासिल होती है। तथा संबंधित क्षेत्रों में मां की कृपा से उन्हें उच्च शिखर प्राप्त होता है।
मां दुर्गा के इस छठे विग्रह की पूजा-अर्चना नवरात्रि के छठे दिन करने का विधान होता है।इनके पूजा से आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। तथा शारीरिक बल और समृद्ध हुआ करता है। व्यक्ति जीवन पथ पर रोग, भय से मुक्त होता है। तथा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष शत्रुओं से छुटकारा प्राप्त होता है। ऐसा भी कथानक प्राप्त होता है कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण को प्रीयतम के रूप में प्राप्त करने हेतु व्रज मंडल की गोपियों ने इनकी आराधना की थी। माता ने उन्हें वांछित वर प्रदान किया तथा ब्रज में आज भी दिव्य रूप में प्रतिष्ठित हैं।