बिहार की राजनीति में सिर्फ़ ऐसे ही नेता नहीं हैं जिन्होंने अपनी दबंगई और घोटालों के कारण पहचान बनाई. बिहार की भूमि ने ऐसे नेताओं को भी जन्म दिया है जिन्होंने पूरे देश को राजनीति का असल मतलब समझाया. ऐसे ही एक नेता हुए कर्पूरी ठाकुर. इस शख्स में खुद को लेकर ज़रा मोह नहीं था, इन्होंने अपना जीवन जनता पर न्योछावर दिया.
भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के दूसरे उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रह चुके कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) का जन्म भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान समस्तीपुर के एक गांव पितौंझिया, जिसे अब कर्पूरीग्राम कहा जाता है, में नाई जाति में हुआ था।
1924 में हुआ था जन्म!
कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो जन्मतिथि लिखकर नहीं रखते। 1924 में नाई जाति के परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर की जन्मतिथि 24 जनवरी 1924 मान ली गई। स्कूल में नामांकन के समय उनकी जन्मतिथि 24 जनवरी 1924 अंकित हैं।
जननायक कर्पूरी ठाकुर के पिताजी का नाम गोकुल ठाकुर तथा माता जी का नाम रामदुलारी देवी था। इनके पिता गांव के सीमांत किसान थे तथा अपने पारंपरिक पेशा नाई का काम करते थे।भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उन्होंने 26 महीने जेल में बिताए थे। वह 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर रहे।
इसलिए जननायक कहलाए
बिहार की सियासत में जब भी सहज जीवन शैली और सर्वहारा की सियासत करने वाले मुख्यमंत्री की चर्चा होगी, उसमें कर्पूरी ठाकुर(Karpoori Thakur) का नाम जरूर शामिल होगा। कर्पूरी ठाकुर सरल और सरस हृदय के राजनेता माने जाते थे। सामाजिक रुप से पिछड़ी किन्तु सेवा भाव के महान लक्ष्य को चरितार्थ करती नाई जाति में जन्म लेने वाला यह महानायक राजनीति में भी जन सेवा की भावना से जुड़ा रहा। उनकी सेवा भावना के कारण ही उन्हें जननायक (jannayak karpoori thakur)कहा जाता है, वह सदा गरीबों के हक़ के लिए लड़ते रहे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया।

आरंभिक शिक्षा
6 वर्ष की आयु में गांव की ही पाठशाला में अपनी आरंभिक शिक्षा शुरू करने वाले कर्पूरी ठाकुर के अंदर बचपन से ही नेतृत्व क्षमता ने जन्म लेना शुरू कर दिया था। छात्र जीवन के दौरान युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल कर चुके कर्पूरी ठाकुर ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इसके बाद उन्होंने 1940 में मैट्रिक द्वितीय श्रेणी से पास किया और दरभंगा के चंद्रधारी मिथिला महाविद्यालय में आईए में नामांकन करा लिया। जब भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने 1942 में अपनी पढ़ाई छोड़ दी और उस आंदोलन में हिस्सा लिया और जयप्रकाश नारायण के द्वारा गठित “आजाद दस्ता” के सक्रिय सदस्य बने तंग आर्थिक स्थिति से निजात पाने के लिए उन्होंने गांव के ही मध्य विद्यालय में 30रु. प्रति माह की तनख्वाह पर प्रधानाध्यापक का पद स्वीकार किया। उन्हें दिन में स्कूल के अध्यापक और रात में आजाद दस्ता के सदस्य के रूप में जो भी जिम्मेदारी मिलती उसे बखूबी निभाते थे।

भारत छोड़ो आंदोलन में लिया था हिस्सा
भारत छोड़ो आंदोलन में जबरदस्त तरीके से हिस्सा लेने और अंग्रेजी सरकार को हिलाने वाले कर्पूरी ठाकुर को 2 साल से ज्यादा समय तक जेल में गुजारना पड़ा। 23 अक्टूबर 1943 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और दरभंगा जेल में डाल दिया गया यह उनकी पहली जेल यात्रा थी।
राजनीतिक जीवन
1977 में कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के वरिष्ठतम नेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा से नेता पद का चुनाव जीता और राज्य के दो बार मुख्यमंत्री बने। लोकनायक जयप्रकाशनारायण एवं समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया इनके रजनीतिक गुरु थे।रामसेवक यादव एवं मधुलिमये जैसे दिग्गज उनके साथी थे। इतना ही नहीं, कर्पूरी ठाकुर लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान और सुशील कुमार मोदी के राजनीतिक गुरु हैं। उन्होंने ही बिहार में पिछड़ा वर्ग के लोगों को 1977 में सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था की । सत्ता पाने के लिए उन्होंने पिछड़ा वर्ग का ध्रुवीकरण, हिंदी का प्रचार प्रसार, समाजवादी विचारधारा और कृषि का सही लाभ किसानों तक पहुंचाना जैसे चार कार्यक्रम तय किए थे।
कूट –कूटकर भरी थी ईमानदारी
कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब उनका निधन हुआ तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए।कर्पूरी ठाकुर का जीवन बेदाग रहा।

अलग शख्सियत के नेता थे कर्पूरी ठाकुर
जब करोड़ों रुपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता। उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में सुनने को मिलते हैं।
रेलवे प्लेटफार्म पर पत्नी का श्राद्धकर्म किया
गांव में उनका घर गरीब नाई के घर जैसा था। जब उनकी पत्नी का श्राद्धकर्म आयोजित किया जाना था, लेकिन उनके घर में बिल्कुल जगह नहीं थी। उसके बाद मजबूरी में श्राद्धकर्म को रेलवे प्लेटफार्म पर आयोजित किया गया। प्लेटफार्म पर ही सभी बड़े-छोटे राजनीतिज्ञों ने श्राद्धकर्म में भाग लिया। लोगों ने वहीं बैठकर श्राद्ध भोज भी खाया।
बहनोई को 50 रुपये देकर बोले थे सीएम ‘जाओ उस्तरा खरीद लाओ’
कर्पूरी जी की ईमानदारी से जुड़े बहुत से उदाहरण हैं, लोग बत्ताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए, उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, “जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए।”
पुत्र को लोभ में ना आने की देते रहते थे सलाह
जब कर्पूरी ठाकुर पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को खत लिखना नहीं भूले। इस ख़त में क्या था, इसके बारे में रामनाथ कहते हैं, “पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना। कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना। मेरी बदनामी होगी।” रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का फ़ायदा भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया।
ऑस्ट्रिया जाने के लिए कोट नहीं था, मांगना पड़ा
बेटे रामनाथ ने अपने पिता की सादगी की चर्चा के दौरान बताया था कि जननायक 1952 में विधायक बन गए थे। उन्हें एक प्रतिनिधिमंडल में जाने के लिए ऑस्ट्रिया जाना था।उनके पास कोट ही नहीं था। एक दोस्त से मांगना पड़ा। वहां से यूगोस्लाविया भी गए तो मार्शल टीटो ने देखा कि उनका कोट फटा हुआ है और उन्हें एक कोट भेंट किया।

आरोप लगते रहे, लेकिन करोड़ों वंचितों की आवाज़ बने रहे
हालांकि बिहार की राजनीति में उन पर दल बदल करने और दबाव की राजनीति करने का आरोप भी ख़ूब लगाया जाता रहा है। लेकिन कर्पूरी बिहार की परंपरागत व्यवस्था में करोड़ों वंचितों की आवाज़ बने रहे।
सामाजिक न्याय की लड़ाई को लालू से पहले बुंलद कर दिया था
बिहार की सियासत में आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव को सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर देखा जाता है। हालांकि, लालू यादव से पहले बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई को एक साधारण नाई परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर ने बुंलद कर दिया था। मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के वंचितों के हक में न सिर्फ काम किया, बल्कि उनका मनोबल भी बढ़ाया, जिसकी वजह से दलित-पिछड़े राजनीति में ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में आगे बढ़े हैं। उन्होंने पिछड़ों को 26 फीसदी आरक्षण भी देना का काम किया, जो कि देश में पहली बार बिहार में लागू किया गया था।
कांग्रेस विरोधी राजनीति के अहम नेताओं में थे शुमार
कांग्रेस विरोधी राजनीति के अहम नेताओं में कर्पूरी ठाकुर शुमार किए जाते रहे। इंदिरा गांधी अपातकाल के दौरान तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें गिरफ़्तार नहीं करवा सकीं थीं।
अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया
1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया। इसके चलते उनकी आलोचना भी ख़ूब हुई लेकिन हक़ीक़त ये है कि उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया। इस दौर में अंग्रेजी में फेल मैट्रिक पास लोगों का मज़ाक ‘कर्पूरी डिविजन से पास हुए हैं’ कह कर उड़ाया जाता रहा। उन्हें शिक्षा मंत्री का पद भी मिला हुआ था और उनकी कोशिशों के चलते ही मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया।

इसलिए बन गए सवर्णों के दुश्मन
1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल कमीशन लागू करके राज्य की नौकरियों आरक्षण लागू करने के चलते वो हमेशा के लिए सर्वणों के दुश्मन बन गए,लेकिन कर्पूरी ठाकुर समाज के दबे पिछड़ों के हितों के लिए काम करते रहे।
मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की
कर्पूरी ठाकुर देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी। उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा देने का काम किया।
सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया
मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था, इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था।
…जब 9000 से ज़्यादा नौकरी एक साथ दे दी
युवाओं को रोजगार देने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी थी कि एक कैंप आयोजित कर 9000 से ज़्यादा इंजीनियरों और डॉक्टरों को एक साथ नौकरी दे दी। इतने बड़े पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद आज तक इंजीनियर और डॉक्टर बहाल नहीं हुए। मुख्यमंत्री के तौर पर महज ढाई साल के वक्त में गरीबों के लिए उनकी कोशिशें की ख़ासी प्रशंसा हुई।

साहित्य, कला एवं संस्कृति में थी दिलचस्पी
दिन रात राजनीति में ग़रीब गुरबों की आवाज़ को बुलंद रखने की कोशिशों में जुटे कर्पूरी की साहित्य, कला एवं संस्कृति में काफी दिलचस्पी थी।कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था।
ये भी पढ़ें : नेताजी का झारखंड से रिश्ता…, देश में आखिरी बार झारखंड के इसी स्टेशन पर देखे गए थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस