Karnataka Politics: कर्नाटक का चुनावी मैदान जीत जाने के बाद कांग्रेस ही नहीं भाजपा को बाहर का रास्ता दिखाने के सपने देखने वाला विपक्ष भी उत्साह से भर गया है। उत्साह तो ठीक है, लेकिन अति उत्साह और अति आत्मविश्वास औंधे मुंह जमीन पर ला सकता है। ऐसा सिर्फ कहा नहीं जा रहा, बल्कि पिछला चुनावी इतिहास भी यही बता रहा है। इसलिए भाजपा को हराने के लिए कर्नाटक जीत का टॉनिक ही काफी नहीं है। इसे कतई लोकसभा की जीत का संकेत नहीं माना जा सकता। जिस तरह हर राज्य को जीतने की अलग रणनीति होती है, उसी तरह पूरा देश जीतने की रणनीति तो सबसे अलग होनी चाहिए।
2018 के बाद 2019 में क्या हुआ?
2019 लोकसभा चुनाव से पहले भी कांग्रेस को एक नहीं, तीन राज्यों में भाजपा के विरुद्ध भारी सफलता मिली थी। याद होगा, 2018 के मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को धूल चटा दिया था, लेकिन कुछ ही महीने बाद 2019 में लोकसभा चुनाव हुए थे। इस बार धूल चाटने की बारी कांग्रेस की थी।
2012 में यूपी चुनाव के बाद 2014 में क्या हुआ?
कहा जाता है कि देश को जीतना है तो उत्तर प्रदेश को जीतना बेहद जरूरी है। यहां भी 2012 के विधानसभा फिर 2014 के लोकसभा चुनाव को याद रखना जरूरी है। 2012 में जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए थे तब समाजवादी पार्टी (सपा) स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आयी थी, लेकिन 2 साल बाद लोकसभा चुनाव में उसकी हवा निकालते हुए भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने राज्य की 80 में 73 सीटों पर हाथ साफ कर दिया था। इतना ही नहीं, 2013 में भी कर्नाटक चुनाव भी तो हुए थे। तब भी कांग्रेस चुनाव जीती थी। फिर…
कांग्रेस हो या दूसरी विपक्षी पार्टियां, ये उदाहरण उन्हें सबक देने के लिए पर्याप्त हैं। इन उदाहरणों का बिलकुल भी यह मतलब नहीं है कि भाजपा को हराया ही नहीं जा सकता, लेकिन हराने के लिए उत्साह की जरूरत है अति उत्साह की नहीं, विश्वास की जरूरत है, अति विश्वास की नहीं। मजबूत रणनीति बनाकर सही दिशा में चलने की जरूरत है।
न्यूज डेस्क/ समाचार प्लस – झारखंड-बिहार
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