करम ही धरम है! आदिवासियों के दिलों में बसता है प्रकृति पर्व करमा

प्रकृति से जुड़ा पर्व करमा आदिवासी समाज का बहुत बड़ा पर्व है। यह सिर्फ झारखंड में ही नहीं, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, ओडिशा यहां तक कि बांग्लादेश में भी मनाया जाता है। करमा दरअसल एक फसल उत्सव है जो शक्ति, यौवन और युवावस्था के देवता करम-देवता को समर्पित है। इस पर्व में अच्छी फसल और स्वास्थ्य की कामना की जाती है।

हिन्दू पंचांग के भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को यह पर्व पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस पर्व में करम वृक्ष की प्राधना होती है जिसकी शाखा को घर के आंगन या आदिवासी धर्मस्थलों में रोपित किया जाता है। मिट्टी से हाथी और घोड़े की मूर्तियां बनाकर करम देवता की पूजा की जाती है। पूजा-अर्चना करने के पश्चात महिला-पुरुष नगाड़ा, मांदर और बांसुरी के साथ करम शाखा के चारों ओर परिक्रमा करते हुए नाच-गान होता है। फिर दूसरे दिन कुल देवी-देवता को नवान्न (नया अन्न) देकर उसका उपभोग शुरू किया जाता है। करम पर्व विभिन्न आदिवासी और विभिन्न हिन्दु किसान समूहों द्वारा मनाया जाता है, जिनमें शामिल हैं- बैगा, भूमिज, उरांव, खड़िया,मुंडा, कुड़मी, कोरवा, भुईयां-घटवाल, बागाल, घटवार, बिंझवारी, करमाली, लोहरा, आदि।

गैर आदिवासियों के घरों में पंडित-पुरोहित पूजा कराते हैं, जबकि आदिवासी समाज में पाहन पूजा कराता है और करम-धरम की कहानी सुनाता है। आदिवासी समाज में अखड़ा में सामूहिक रूप से करम पूजा की जाती है, जबकि सदानों के घरों के आंगन में करम की डाली को गाड़कर पूजा करने की परंपरा है, लेकिन सदानों के घरों में भी पाहन ही करम की डाली गाड़ता और पहली पूजा वहीं करता है। उसके बाद ही पंडित पुजारी पूजा कराते हैं। जिस प्रकार जनजातीय समाज के मुंडा, उरांव, हो, संताल सहित अन्य समुदायों में करमा मनाया जाता है, उसी प्रकार हिंदू समाज के ब्राहृमण, राजपूत, तेली, कुर्मी, कोइरी, हरिजन, कुम्हार, बनिया सहित सभी जातियों में यह पर्व श्रद्धाभाव से मनाया जाता है।

इसके अलावा आादिवासी और मूलवासी समाज में अधिकतर कुवांरी लड़कियां भी यह पर्व मनाती हैं। इस पर्व में बहनें अपने भाइयों की रक्षा के लिए उपवास रखती हैं। इन व्रतियों को कररमैती या करमइती कहा जाता है। पर्व मनाने के लिए करमैती 11 दिन, नौ दिन अथवा 7 दिन का अनुष्ठान करती हैं।

न्यूज डेस्क/ समाचार प्लस – झारखंड-बिहार

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