Jitiya Vrat Katha: यह पौराणिक कहानी पढ़े और सुने बिना अधूरा है जितिया व्रत, जानें महत्व और असली कथा

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Jitiya Vrat ki Asli Katha: मां की ममता और असीम प्रेम का पर्व जितिया का व्रत आज रखा जा रहा है। यह व्रत संतानवती महिलाएं यानी मांएं अपने बच्चों की लंबी आयु और जीवन में संकटों उनसे दूर रखने की कामना से करती है। सुबह में ओठगन रस्म से इसकी विधिवत शुरुआत हो चुकी है। बिहार, यूपी, झारखंड समेत नेपाल और पश्चिम बंगाल के कुछ क्षेत्रों में लोकप्रिय यह व्रत एक तीन दिवसीय पर्व है, जिसे बेहद कठिन माना जाता है।

इस साल इसकी शुरुआत 24 सितंबर, 2024 को नहाय-खाय से हुई। इस दिन नोनी साग, तोरई की सब्जी और मड़ुआ की रोटी खाना अनिवार्य होता है। इसके अगले दिन यानी आज बुधवार 25 सितंबर, 2024 को इस व्रत का उपवास रखा जा रहा है। उपवास के दिन जितिया व्रत की पौराणिक कथा पढ़ी और सुनी जाती है, वरना व्रत अधूरा माना जाता है। आइए जानते हैं, जितिया व्रत की असली कथा क्या है?

जितिया व्रत की असली कथा

जीमूतवाहन और गरुड़ की कथा

गंधर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बहुत उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय उनको राजसिंहासन पर बैठाया था, लेकिन उनका मन राजपाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए। वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी।

जीमूतवाहन के पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया, “हे राजा! मैं नागवंश की स्त्री हूं, मुझे एक ही पुत्र है, पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है कि वे प्रतिदिन गरुड़ को खाने के लिए एक युवा नाग सौंपते हैं। आज मेरे पुत्र शंखचूड़ की बलि का दिन है। आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे।”

जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा, “डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ताकि गरुड़ मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए।”

ये कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड़ के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए।

गरुड़ ने अपनी कठोर चोंच का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड़ बडे आश्चर्य में पड़ गए, क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था।

गरुड़ जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। वे बोले, “एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं। आप मुझे खाकर भूख शांत करें।” गरुड़ उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए।

गरुड़ को स्वयं पर पछतावा होने लगा, वह सोचने लगे, “एक यह मनुष्य है, जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं, लेकिन दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं।” उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरुड़ ने कहा। “हे उत्तम मनुष्य! मैं तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूं। तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो।”

राजा जीमूतवाहन ने कहा, हे पक्षीराज! आप तो सर्व-समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं, तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें। आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं, उन्हें जीवन प्रदान करें।”

गरुड़ ने कहा- हे राजा! तुम्हारी जैसी इच्छा है, वैसा ही होगा। आज से जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।” गरुड़ ने सबको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वचन भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई।

तब से ही संतान की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई। यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। जीवित्पुत्रिका व्रत के दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा और ध्यान के बाद जीमूतवाहन से जुड़ी यह व्रत कथा भी सुननी चाहिए। इससे संतान की रक्षा होती है और वह मुश्किल से मुश्किल से परिस्थितियों और संकटों से बाहर निकल आता है।

चिल्हो सियारो की कथा

जितिया यानी जीवित्पुत्रिका व्रत में चिल्हो सियारो की एक कथा भी सुनी जाती है। वह संक्षेप में इस प्रकार से है:

एक वन में सेमर के पेड़ पर चिल्हो नामक एक चील रहती थी। पास की झाडी में सियारो नाम की एक सियारिन भी रहती थी, दोनों में खूब पटती थी। चिल्हो जो कुछ भी खाने को लेकर आती उसमें से सियारिन के लिए जरूर हिस्सा रखती। सियारिन भी चिल्हो का ऐसा ही ध्यान रखती। इस तरह दोनों के जीवन आनंद से कट रहे थे।

एक् बार वन के पास गांव में औरतें जिउतिया के पूजा की तैयारी कर रही थी। चिल्हो ने उसे बडे ध्यान से देखा और अपनी सखी सियारो को भी बताई। फिर चिल्हो-सियारो ने तय किया कि वे भी यह व्रत करेंगी।

सियारो और चिल्हो ने जिउतिया का व्रत रखा, बडी निष्ठा और लगन से दोनों दिनभर भूखे-प्यासे मंगल कामना करते व्रत में रहे, लेकिन रात होते ही सियारिन को भूख प्यास सताने लगी। जब बर्दाश्त न हुआ तो जंगल में जाके उसने मांस और हड्डी पेट भरकर खाया।

चिल्हो ने हड्डी चबाने के कड़- कड़ की आवाज सुनी तो पूछा, “यह कैसी आवाज है?” सियारो ने कह दिया, “बहन, भूख के मारे पेट गुड़गुड़ा रहा है, यह उसी की आवाज है।” मगर चिल्हो को पता चल गया। उसने सियारो को खूब लताडा कि जब व्रत नहीं हो सकता, तो संकल्प क्यों लिया था! सियारो लजा गई पर व्रत भंग हो चुका था। चिल्हो ने रात भर भूखे-प्यासे रहकर व्रत पूरा किया।

अगले जन्म में दोनों मनुष्य रूप में राजकुमारी बनकर सगी बहनें हुईं। सियारो बड़ी बहन हुई और उसकी शादी एक राजकुमार से हुई। चिल्हो छोटी बहन हुई, उसकी शादी उसी राज्य के मंत्रीपुत्र से हुई। बाद में दोनों राजा और मंत्री बने। सियारो रानी के जो भी बच्चे होते वे मर जाते, जबकि चिल्हो के बच्चे स्वस्थ और हट्टे-कट्टे रहते।

इससे सियारो को चिल्हो और उसके बच्चे से बहुत जलन होती। इस ईर्ष्या और जलन में उसने चिल्हो के बच्चों का शीश (सिर) कटवाकर कटवाकर डब्बे में बंद करा दिया, लेकिन पर वह शीश मिठाई बन गई। सियारो और जलभुन गई और क्रोध में पागल हो गई। उसने बार-बार चिल्हो के बच्चों को मरवाने की कोशिश की, लेकिन बच्चों का बाल तक बांका न होता।

उसने न केवल अपनी बहन के बच्चों को बल्कि उसके पति को मारने का प्रयास भी किया पर सफल न हुई। आखिरकार दैवयोग से उसे भूल का आभास हुआ। उसने क्षमा मांगी और बहन के बताने पर जीवित्पुत्रिका यानी जितिया व्रत विधि-विधान से किया तो उसके पुत्र भी जीवित रहे। विश्वास किया जाता है कि जितिया व्रत करने के साथ चिल्हो सियारो की यह कथा सुनने से लाभ होता है और मनोकामना पूरी है।

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