धर्म को राजनीति से अलग रखने की बातें तो खूब होती हैं। लेकिन धर्म है कि राजनीति से जाता ही नहीं है। कोई भी धार्मिक अवसर राजनेताओं के लिए सुअवसर होता है। तभी ऐसे अवसरों पर मधुमक्खी की तरह वहां पहुंच जाते हैं। कारण साफ है आखिर राजनीति करनी है, राजनीति चमकानी है। धर्म के नाम पर एक दूसरे पर कीचड़ भी खूब उछाला जाता है, लेकिन जैसे ही विशेष अवसर आता है राजनेता अपने आपको ‘रोक नहीं पाते’।
अभी हाल में सर्वधर्म त्यौहार बीते। मुसलमान रोजा और ईद में व्यस्त थे. हिन्दू नवरात्रि में पूजा-अर्चना में लगे हुए है। आदिवासियों का प्रकृति पर्व भी हर्षोल्लास से मनाया गया। एक साथ तीन-तीन धार्मिक अवसर! राजनेताओं की तो चांदी हो गयी! ऊपर से चुनाव महापर्व भी चल रहा है। तो भला कोई कैसे पीछे रह सकता है। जिसे जहां ‘अवसर’ मिला पहुंच लिये। मुख्यमंत्री चम्पाई सोरेन सरहुल मनाते हुए दिखे। मांदर की थाप पर थिरकते दिखे। हालांकि चुनाव नहीं रहता तब भी वह ऐसा करते, लेकिन चुनाव में इसकी आवश्यकता कुछ ज्यादा ही होती है। कांग्रेस के रांची के बड़े नेता सुबोधकांत सहाय ने ईद, सरहुल सब जगह अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। भला भाजपा पीछे क्यों रहती। धर्म की राजनीति ही तो उसकी आत्मा है। रांची सांसद और वर्तमान प्रत्याशी संजय सेठ ने अपने X अकाउंट पर पोस्ट कर एक हनुमान मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में शामिल होने की जानकारी दी। उन्होंने लिखा कि बुढ़मू में श्री बजरंगबली के प्राण-प्रतिष्ठा के अवसर पर आयोजित भव्य कलश शोभायात्रा में शामिल हुआ। सभी मातृशक्ति को कलश प्रदान करने और आशीर्वाद लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
ये कुछ चंद उदाहरण हैं, लेकिन सत्य यही है कि कोई भी नेता हो, धर्म से खुद को अलग नहीं रख सकता। धार्मिक अवसर राजनेताओं के लिए आस्था से ज्यादा ‘अवसर’ होते हैं। क्योंकि इसी के जरिये वे विशाल जनसमूह या खास समूह से जुड़ पाते हैं। अगर जन समुदाय से जुड़ेंगे नहीं तो उसमें वे अपनी पैठ कैसे बनायेंगे। वैसे भी तो राजनेताओं पर यह आरोप लगता ही रहता है कि चुनाव जीतने के बाद उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं।
न्यूज डेस्क/ समाचार प्लस – झारखंड-बिहार
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