जब महात्मा गांधी ने कुंभ में लगायी थी डुबकी, क्रांतिकारियों का गढ़ बनते कुंभ से डरे थे अंग्रेज!

प्रयागराज सिर्फ कुंभ और महाकुंभ के लिए ही विख्यात नहीं है, यह देश के महान क्रांतिकारियों की भी प्रेरणा स्थली रहा है। ऐसा इसलिए साल 1918 में प्रयागराज कुंभ के समय महात्मा गांधी बड़े ही गुपचुप तरीके से इलाहाबाद पहुंचे और संगम में डुबकी लगायी थी। बता दें कि 1919 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की थी। प्रयागराज में साल 1918 में कुंभ के दौरान महात्मा गांधी भी संगम नगरी पहुंचे थे  और संगम में स्नान के बाद उन्होंने साधु-संतों के साथ संवाद भी किया था। यहां यह भी याद दिला दें कि रानी लक्ष्मीबाई भी 1857 की क्रांति से पहले यहां आयी थीं।

महात्मा गांधी विशेष उद्देश्य लेकर प्रयागराज आये थे। कुंभ वह स्थल है जहां पूरे देश से लोग एकत्र होते हैं। जैसे हम सभी जानते हैं कि वह समय स्वतंत्रता आन्दोलन का था। महात्मा गांधी पूरे देश में घूम-घूम कर लोगों से मिलकर स्वतंत्रता की लौ जला रहे थे। ऐसे में उस स्थान पर पूरे देश से लोग इकट्ठा हो रहे हो, ऐसे स्थान से उत्तम भला और कौन स्थान हो सकता था। महात्मा गांधी यहां न सिर्फ साधु-संतों से मिले, बल्कि देशभर से आये श्रद्धालुओं से मुलाकात भी की। महात्मा गांधी की इस कोशिश से का असर भी पड़ा। अंग्रेजों को भय भी सताने लगा था। आलम यह था कि साल 1942 में जब अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था, उस समय कुंभ आने के लिए बसों और ट्रेनों के टिकटों की बिक्री बंद कर दी गयी थी।

स्वतंत्रता सेनानियों के लिए इस तरह के मेले ही लोगों को जागरूक करने के अच्छे माध्यम हुआ करते थे। उन दिनों स्वतंत्रता सेनानी भी अपना संदेश लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रयाग कुंभ के तीर्थ पुरोहितों (प्रयागवाल) की तर्ज पर प्रतीकों का इस्तेमाल करते थे। इस तरह के प्रतीक आमतौर पर लोगों को किसी स्थान विशेष पर इकट्ठा करने के लिए लगाए जाते थे। उनकी इस यात्रा से अंग्रेज इतना डर गए थे कि कुंभ में भीड़ को रोकने के लिए बसों और ट्रेनों में टिकटों की बिक्री बंद कर दी गई। गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर महात्मा गांधी 1918 में प्रयागराज आये थे।

कहा तो यह भी जाता है कि 1857 की क्रांति के पहले रानी लक्ष्मीबाई भी प्रयागराज पहुंची थीं और यहां उन्होंने एक तीर्थ पुरोहित के घर पर प्रवास किया था। कहा तो यह भी जाता है कि जब लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लड़ रही थीं तो उनके साथ ग्वालियर में नागा साधु बाबा गंगादास की शाला से जुड़े 2 हजार नागा साधुओं ने साथ दिया था। उस युद्ध में 745 साधु शहीद हो गये थे।

अंग्रेजों पर कुंभ का भय कितना हावी हो गया था, कि जब भी कुंभ लगता था, क्रांतिकारियों की किसी न किसी गतिविधि से वे भयभीत हो जाते थे। यह स्थिति 1930 और 1942 के कुंभ में भी रही। यहां तक कि 1942 के कुंभ के समय अंग्रेजों ने अफवाह उड़ाने की कोशिश की कि कुंभ मेले में जापान बमबारी कर सकता है।

न्यूज डेस्क/ समाचार प्लस – झारखंड-बिहार

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