न्यूज डेस्क/ समाजार प्लस – झारखंड-बिहार
शहीद-ए-आजम भगत सिंह की शहादत को देश और दुनिया बड़ी विनम्रता से स्मरण करती है। भगत सिंह की शहादत की जब बात आती है, कुछ नाम खुद-ब-खुद उनके साथ जुड़ जाते हैं। इनमें दो नाम ऐसे है जिसे भारत का हर नागरिक हिकारत की नजरों से देखता है, जबकि एक और नाम है जिसे देश लाखों सलाम भेजता है। यह नाम है जस्टिस आगा हैदर का। जस्टिस आगा हैदर ने भगत सिंह को फांसी लिखने के बजाय अपना इस्तीफा देना स्वीकार किया था किया था।
जस्टिस आगा हैदर ने भगतसिंह और उनके साथियों सुखदेव और राजगुरु को सज़ा से बचाने के लिए गवाहों के बयानों और सुबूतों की बारीकी से पड़ताल की थी। इन महान क्रांतिकारियों के लिए जस्टिस आग़ा हैदर साहब के दिल में काफी हमदर्दी थी। इस कारण उन्होंने शहीद-ए-आजम और उनके साथियों के केस से खुद को अलग करना ज्यादा मुनासिब समझा।
इतिहासकार भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले दो गद्दारों का भी जिक्र करना नहीं भूलते। असेंबली में बम फेंकने का मुकदमा जब चल रहा था तब उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ शोभा सिंह ने गवाही दी थी। दूसरे गवाह शादी लाल ने भी वतन से गद्दारी कर मुकदमे में गवाही दी थी। वतन से गद्दारी के इनाम में दोनों को अंग्रेज़ों ने सर की उपाधि के साथ ढेरों माल-असबाब दिया था। शादीलाल और शोभा सिंह को अंग्रेजों ने सर-आंखों पर बिठाया, लेकिन भारतीय जनता से इन्हें नफरत ही मिली। शादी लाल को गांव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा तक नहीं दिया था। शादी लाल के लड़के उसका कफ़न दिल्ली से खरीद कर लाये तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था।
वहीं, जस्टिस आगा हैदर ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जाकर जो काम किया, उस पर हर भारतीय को गर्व है। जस्टिस आगा हैदर पर अंग्रेजी हुकूमत ने दबाव बनाया था और भगतसिंह को फांसी की सज़ा देने का हुक़्म दिया था, मगर इस वतन परस्त ने देशभक्तों को फांसी लिखने के बजाय अपना इस्तीफा दे मुनासिब समझा। उसके बाद दूसरे जज ने फांसी लिखकर बहुत नाम कमाया।
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गये जस्टिस आगा हैदर
8 अप्रैल 1929 को शहीद भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ असेंबली हॉल में बम फेंका था। उन्हें गिरफ्तार कर विशेष ट्रिब्यूनल द्वारा केस दर्ज किया गया था। इसे लाहौर षड्यंत्र केस (1929-1930) के रूप में जाना जाता है। इस मुकदमने में सहारनपुर के निवासी जस्टिस आगा हैदर ट्रिब्यूनल में एकमात्र भारतीय सदस्य थे। ट्रिब्यूनल में सभी जज अंग्रेज़ थे। 7 अक्टूबर1930 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई थी। ब्रिटिश हुकूमत के इस फैसले पर जस्टिस आगा हैदर को हस्ताक्षर करने के लिये कहा गया। जस्टिस आगा हैदर ने इससे इनकार कर दिया। अंग्रेज़ों का दबाव पड़ने पर जस्टिस हैदर ने देश की आज़ादी की ख़ातिर न्यायमूर्ति के पद से इस्तीफा दे दिया।
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